करुना सागर कछु-किंचित,
हो चला है उत्कंठित,,
मौसम आकर जाने क्यों आज,
करके मनमाटि उद्विग्न,
फैले पर के आह्वाहन के,
रचे है जलमोती सागर के,
कोमल पर की छटा बिखेरे,
चले है जाए, चलते ही जाए,
श्वेत-श्याम का अंतर कल तक,
जो था फैला दसों दिशाओं में,
उन भूरे-बूढ़े नैनों में आज,
चन्दन जैसे शीतल पलछिन,
चमक हैं आये, चमके ही जाए,
जब भूल गया था चाँद चकोरा,
और दीये की बाती थी रूठी,
जब धूने की तास्सीर भी,
पवन का दामन छोड़ चुकी थी,
टूटे तारे बन भगोड़ा,
अभिलाषा न करते पूरा,
आस हमारी उस दिन सुनकर,
जिस दिन माँगा था वो कल्कि,
येही रघुकुल का श्वेतोत्तर जो,
छलक है आये, छलके ही जाए...
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