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सान्झ की वह प्रतिमा...


झिलमिल करती नव तारिका
और मारू की स्वर्ण कालिमा,
सर्वोज्ज्वल वो ध्रुव तारिका,
ऐसे ही बहे हैं सान्झ नायिका,

गगन के मद्ह्यान्ह लेप में,
है वो जलाये सम्म अनेक
धूमिल करके ज्ये निदाघ,
बैठी है लिख़ने सान्झ का लेख़,

है सुरसरि सरीसृप की भाति 
बहे; गाये है सान्झ का गीत,
और रजनी कलि होती है विकसित 
देख़के सान्झ की यह प्रतिमा...






न किसी के आँख का नूर हूँ,
न किसी के दिल का सुरूर हूँ
न किसी के हाथ का हूर हूँ
न किसी के आँख का नूर हूँ

न किसी के दिल की मैं वासिनी
और न किसी की मैं चाह हूँ,
मैं अपने ही दिल की वो राह हूँ.
जो जाती है नगरे-कामिनी,

मैं लेखनी कविता नहीं,
मैं राही हूँ, साथी नहीं,
मैं न किसी की मुराद हूँ,
न किसी की आँख का नूर हूँ,

मैं डाल हूँ, पाती नहीं,
मैं राही हूँ, साथी नहीं,
मैं प्यार हूँ, प्यारी नहीं,
मैं रेत हूँ, प्यासी नहीं,

मैं न किसी की आह हूँ,
और न किसी की आंसू,
न  किसी के ख्वाब की दास्ताँ,
न किसी की मैं मुस्कान हूँ,

मैं सूरज हूँ, पर ताप नहीं,
मैं  चाँद हूँ, ज्योत्स्ना नहीं,
मैं कंगन हूँ, छनछन नहीं,
मैं फूल हूँ, खुशबू नहीं,

मैं कांच हूँ. दर्पण नहीं,
मैं स्वर्ण हूँ, गहना नहीं,
मैं चाह हूँ, चाहत नहीं,
मैं रात हूँ, अँधेरा नहीं,

मैं पास हूँ, दूर नहीं,
मैं फिजा हूँ. मौसम नहीं,
मैं मेघ हूँ, बारिश नहीं,
मैं पंक हूँ, पंकज नहीं,
न किसी के आँख का नूर हूँ,
न किसी के दिल का सुरूर हूँ
न किसी के हाथ का हूर हूँ
न किसी के आँख का नूर हूँ

न किसी के दिल की मैं वासिनी
और न किसी की मैं चाह हूँ,
मैं अपने ही दिल की वो राह हूँ.
जो जाती है नगरे-कामिनी,

मैं लेखनी कविता नहीं,
मैं राही हूँ, साथी नहीं,
मैं न किसी की मुराद हूँ,
न किसी की आँख का नूर हूँ,

मैं डाल हूँ, पाती नहीं,
मैं राही हूँ, साथी नहीं,
मैं प्यार हूँ, प्यारी नहीं,
मैं रेत हूँ, प्यासी नहीं,

मैं न किसी की आह हूँ,
और न किसी की आंसू,
न  किसी के ख्वाब की दास्ताँ,
न किसी की मैं मुस्कान हूँ,

मैं सूरज हूँ, पर ताप नहीं,
मैं  चाँद हूँ, ज्योत्स्ना नहीं,
मैं कंगन हूँ, छनछन नहीं,
मैं फूल हूँ, खुशबू नहीं,

मैं कांच हूँ. दर्पण नहीं,
मैं स्वर्ण हूँ, गहना नहीं,
मैं चाह हूँ, चाहत नहीं,
मैं रात हूँ, अँधेरा नहीं,

मैं पास हूँ, दूर नहीं,
मैं फिजा हूँ. मौसम नहीं,
मैं मेघ हूँ, बारिश नहीं,
मैं पंक हूँ, पंकज नहीं,









मैं पंथ की पतझड़ नहीं,
बसंत की हूँ पूर्वी,
एक माया हूँ अपूर्वी,
अनादी एन देखा नहीं,

 मैं सूरज हूँ, पर ताप नहीं,
मैं रत का अँधेरा नहीं,
मैं स्वर्ण हूँ, गहना नहीं,
मैं मृगनयनी कस्तूरी,

                                         अनन्य मेरी है छवि,
                                         मैं रोशिनी की श्रेयसी,
                                         मैं गर्व हूँ कुटुंब की,
                                         मैं संत-नगरे वासिनी,


                   अनुपम, अविच्छिन्न अस्तित्व
                   की हूँ निरंतर तपस्विनी,
                   निर्संताप निः-संकोच विनम्रता 
                   की  हूँ अपूर्व स्वामिनी.
मैं हूँ तिमिर की चांदनी,
और भैरवी की रागिनी,
चकोर हूँ मैं चाँद की,
और दंभ हूँ मैं मान की.




करुना सागर कछु-किंचित,
हो चला है उत्कंठित,,
मौसम आकर जाने क्यों आज,
करके मनमाटि उद्विग्न,
फैले पर के आह्वाहन के,
रचे है जलमोती सागर के,
कोमल पर की छटा बिखेरे,
चले है जाए, चलते ही जाए,


श्वेत-श्याम का अंतर कल तक,
जो था फैला दसों दिशाओं में,
उन भूरे-बूढ़े नैनों में आज,
चन्दन  जैसे शीतल पलछिन,
चमक हैं आये, चमके ही जाए,


जब भूल गया था चाँद चकोरा,
और दीये की बाती थी रूठी,
जब धूने की तास्सीर भी,
पवन का दामन छोड़ चुकी थी,
टूटे तारे बन भगोड़ा,
अभिलाषा न करते पूरा,
आस हमारी उस दिन सुनकर,
जिस दिन माँगा था वो कल्कि,
येही रघुकुल का श्वेतोत्तर जो,
छलक है आये, छलके ही जाए...






शितितल की श्वेत शम्म है
हिमांश फलक पे विराजमान है
यूँ देख देख द्रवित हो उठे
मन माटी मेरा क्यों आज

समय की धारा न बहे हमेशा
कछु किंचित यह रुक सी जाए
कभी कभी विमुख हो जाए
कुछ ऐसी ही सांझ ई आये
बीत गए जो लम्हे वोह फिर
याद है आये, क्यों ये आये?
वो शाम भी कुछ ऐसी ही थी,
शम्म जले थे जिस दिन उस दिन
पहले-पहल तामीर व बातें
हुई थी उनसे, बीते दिन, वे मलिन मृत्तंश
दर पर मेरे जाने क्यों आया!
खोला जब दर मैंने देखा!
बस याद ही आई थी वो याद...